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"दुनिया के मज़दूरों एक हो जाओ क्योंकि तुम्हारे पास, खोने के लिए, दासता की ज़ंजीरों के अलावा कुछ भी नहीं है और पाने के लिए पूरा संसार पड़ा है ।"
छात्र जीवन में,इस वाक्य ने बहुत प्रभावित किया था । इसके बाद ११वर्षो तक राशनिंग विभाग में नौकरी करने के दौरान,ज़्यादातर तैनाती, कर्वी में रही । पाठा क्षेत्र और मानिकपुर के जंगलों में, काम करने वाले मज़दूरों की,ग़रीबी,लाचारी और बेबसी को बहुत नज़दीक से देखने का,महसूस करने का और कुछ न कर पाने की पीड़ा से गुज़रने का अवसर मिला । उस क्षेत्र के मज़दूर,राशन की दुकानों से केवल ज्वार और मिट्टी का तेल ही लेते थे,क्योंकि चीनी,गेहूँ और अन्य कुछ भी लेने की उनकी सामर्थ्य ही नहीं थी । मानिकपुर,बहिलपुरवा के जंगल सें लकड़ी काटना,गठ्ठर बनाना और उसे दूसरे दिन कर्वी,अतर्रा,बाँदा तक लाकर बेचना यह उनकी जीविका का मुख्य साधन था । यह सारा काम ज़्यादातर महिलाएँ ही करती थीं और उनका शोषण का क्रम जंगल से ही प्रारम्भ हो जाता था । जंगल विभाग के कर्मचारी,इसके बाद सिविल पुलिस के कर्मचारी और फिर रेलवे विभाग, इन सब का पेट भरने के बाद,उनके पास,पूरी ज़लालत भोगने के बाद,दो दिन के श्रम का मूल्य २ या ३ रुपये ही बचता था,जिसमें उन्हे अपना पूरा परिवार पालना था । यह बात मैं वर्ष १९७४ की बता रहा हूँ । पर यह शोषण अब भी बदस्तूर जारी है,अन्तर केवल इतना है कि जो गठ्ठर उस समय ४ रुपये में बिकता था,अब वह ५०-६०रुपये में बिकता है,बाकी का अनुपात वही है ।
इसके बाद २७ वर्षों तक श्रम विभाग में सेवा के दौरान, विभिन्न क्षेत्रों के श्रमिकों के व्यापक शोषण के जो नज़ारे देखने को मिले,यदि उनका वर्णन करने बैठूँ तो उसे पढ़ने का आपके पास समय ही नहीं होगा । एक विचित्र अनुभव यह भी हुआ कि कहीं-कहीं पर,ट्रेड यूनियन भी,इस शोषणवादी व्यवस्था को पुष्ट करने में,सकारात्मक भूमिका निभाती हुई पायी गयीं । इस व्यवस्था को बदलना तो मेरे बस में नहीं था,पर व्यवस्था के अन्दर रहकर,जितना इस शोषण को कम करने में, मैं अपनी भूमिका का निर्वहन कर सकता था,मैंने किया और इसका मुझे सन्तोष है ।
सेवानिवृत्त होने के बाद की एक घटना बता कर,अपना आलेख समाप्त करूँगा । घटना यह है कि मैं गुजरात में,रोटरी क्लब द्वारा आयोजित,इस समय के एक बड़े संत के कार्यक्रम में उपस्थित था । उन संत महोदय ने कार्यक्रम में उपस्थित लोगों से जो समाज के समृद्ध वर्ग का प्रतिनिधित्व करता था,से कहा कि उन्हे अपने लाभ का १०% अच्छे कार्यों में लगाना चाहिए,इसका उन्हे पुण्य प्राप्त होगा । इसके बाद प्रश्नोत्तर का कार्यक्रम था । मैनें बाल्मीकि रामायण में पढ़ा था कि जब भरत दशरथ की मृत्यु के बाद नौनिहाल से वापिस आते हैं तो कौशल्या से मिलने के लिए जाते हैं और वह कौशल्या माता से कहते हैं कि राम के वनगमन में यदि उनकी ज़रा भी भूमिका हो तो उन्हे यह- यह पाप लगें । यह प्रसंग रामचरितमानस में भी है,पर उसमें जिस पाप का ज़िक्र मैं करने जा रहा हूँ,वह शामिल नहीं हैं और वह पाप यह है कि किसी श्रमिक से मज़दूरी करा लेने के बाद,उसे पर्याप्त मेहनताना न देने से जो पाप लगता है । पहिले मैंने सोचा कि जो प्रश्न मेरे मन में उठ रहा है,उसके पूछनें का यह उपर्युक्त समय नहीं है फिर मैनें सोचा कि इस प्रश्न को न पूंछकर मैं अपनी आत्मा के साथ न्याय नहीं कर पाऊँगा ।
प्रश्न :- मान्यवर जिस लाभ के १०% के दान करने पर पुण्य मिलने की बात आपने कही है वह लाभ यदि श्रमिकों को निर्धारित वेतन से कम वेतन देकर या अन्य अनुचित संसाधनों का प्रयोग करके अर्जित किया गया हो तो क्या उसके दान,का भी पुण्य,दाता को प्राप्त होगा ?
उत्तर :- यह दान उत्तम कोटि में तो नहीं आयेगा फिर भी उसको कुछ न कुछ पुण्य तो मिलेगा ही,यदि इस धनराशि को अच्छे कार्यों में प्रयोग किया जाये तो ।
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