Sunday, 31 July 2011

जितनी बड़ी जिन्दगी है उतने बड़े गम, सहने को ज्यादा है कहने को कम


"जितनी बड़ी जिन्दगी है उतने बड़े गम, सहने को ज्यादा है कहने को कम |" अपने छात्र जीवन के मित्र राजबल्लभ के गीत का यह मुखड़ा पिछड़े दो बरसों से जीवन में पूरी सार्थकता के साथ अनुभव हो रहा है | पूरी जिन्दगी अपनी मस्ती में जीने वाला आदमी जिन्दगी के आखिरी पड़ाव में जिन्दगी के दोगलेपन से मुखातिब हो रहा है |अगर जिन्दगी के पहले पड़ाव में ही यह अनुभव मिल जाते तो शायद आदमी के दोहरे चरित्र को समझने का सहूर जाता और इतना तनाव होता | प्रभु जो भी करते हैं उसमें जीव का कल्याण निहित होता है |जीव अपनी अल्पज्ञता के कारण तत्काल प्रभु की कृपा का अनुभव नहीं कर पाता, बाद में लगता है कि जो हुआ वह अच्छा ही रहा |जीव अपने कर्मों का ही फल भोगता है। जब जीवन में शुभ होता है तो जीव अपने को कर्त्ता मानकर खुश होता है और जब कुछ अशुभ होता है तो उसके लिए वह भगवान को दोषी मानकर उसे भला बुरा कहने लगता है | जब बहुत तनाव में होता हूँ तो भगवान को धन्यवाद देने लगता हूँ कि प्रभु तेरी बड़ी कृपा है कि तुमने इसी बहाने मेरे प्रारब्ध का नाश कर दिया | यह प्रारब्ध का भोग तो मेरे काटने से ही काटना था, अच्छा हुआ इसी बहाने यह काम जल्दी निपट गया |फिर उसी समय उनके प्रति करुणा पैदा होती है कि प्रभु जो मेरे प्रारब्ध नष्ट करने में सहयोग कर रहे हैं और अपना प्रारब्ध तैयार कर रहे हैं , उन  पर अपनी कृपा करना |
शेष प्रभु कृपा ।

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