बच्चन जी के गीत की यह पंक्तियाँ "दिन जल्दी जल्दी ढलता है, हो जाये न पथ में रात कहीं, मंजिल भी तो है दूर कहीं ,यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी जल्दी चलता है , दिन जल्दी जल्दी ढलता है " आज बहुत शिद्दत के साथ याद आ रही है | वर्ष १९७३ से शुरू नौकरी का यह सफ़र आज समाप्त हो गया | ऐसा लगता है कि नौकरी का सफ़र तो समाप्त हो गया पर मानव जीवन का सफ़र तो अभी प्रारंभ ही नहीं हुआ । मंजिल तो बहुत दूर है, पथ में रात होने का खतरा तो सामने खड़ा है |कितना भी तेज चलूँ , लगता नहीं कि मंजिल तक पहुँच पाऊँगा | पर तभी प्रभु का गीता में दिया गया यह आश्वासन "नेहाभिक्रमनाशोअस्ति प्रत्यवायो न विद्यते , स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् " संबल प्रदान कर जाता है कि कम से कम इस जन्म में इस पथ में चल तो पड़ा हूँ , न इस जन्म में सही ,किसी न किसी जन्म में तो मंजिल तक पहुँच ही जाऊँगा | दो कदम भी इस पथ पर चल लिया तो इस जन्म में मंजिल दो कदम नज़दीक तो आ ही जाएगी |
शेष प्रभु कृपा |
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