कुम्हलाये होठों पर फैली मुस्कान
पत्तों पर घिर आयी गुमसुम सी शाम
सड़कों औ गलियों पे दृष्टियाँ टंगी
बुझे हुए खम्भों पे बत्तियाँ जलीं
पिंजरे का सुआ रटने लगा राम-राम
पत्तों पर घिर आयी गुमसुम सी शाम
आँगन के तुलसी पे आरती सजी
दूर कहीं मंदिर पे घंटियाँ बजीं
अन्तस में उभरा है फिर कोई नाम
पत्तों पर घिर आयी गुमसुम सी शाम
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