Wednesday, 7 December 2011

सुख-दुःख,शरीर का धर्म है, आत्मा का नहीं

"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि,नैनं दहति पावक: | न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुत:||" आज से ९ वर्ष पूर्व, आज के ही दिन, जब मैं अपनी माँ को मुखाग्नि दे रहा था तो गीता का यही श्लोक मन में आ रहा था | मुझे आज भी लगता है कि वह आज भी मेरे पास हैं  | पूजागृह में रक्खी उनकी तस्वीर के चेहरे का स्मित हास्य, मुझे आज भी आश्वस्त  कर देता है कि मैं किसी भी परेशानी में अकेला नहीं हूँ | जब वह जीवित थीं  और मेरे ऊपर कोई परेशानी आ जाती थी तो वह मुझे हमेशा समझाती थीं ," बबुआ, भगवान पर भरोसा रक्खो, वह सब ठीक कर देगा | जब हमने जीवन में किसी का अहित नहीं किया है तो हमारा अहित कैसे हो सकता है ?" जब मैं कभी क्रोध में होता था और किसी को कटु उत्तर देने के लिए उतावला होता था तो वह कहती थीं ,"भैया, गम खाने से  बड़ी चीज दुनिया में कोई नहीं है | गम खाने से बहुत सी समस्या अपने आप सुलट जाती हैं | होई, तुमसे बड़े हैं , गुस्सा मा कहि दीन्हिन हुइहैन, तुम गम खा जैहों तो थोड़ी देर मा उई खुद ही शांत हुई जैहैं | बात बढ़ावन  से बढ़त है और घटावन से घटत है |" 

                                 मेरी माँ का जीवन बहुत ही कष्टपूर्ण रहा | युवा अवस्था में वैधव्य | मेरे पिता की मृत्यु के समय मैं ६ माह का था, मेरे सबसे बड़े भाई की उम्र मात्र १२ वर्ष की थी | कल्पना करे कि आज से ६१ वर्ष पूर्व, एक खाते-पीते ब्राह्मण परिवार की,दर्जा २ तक पढ़ी महिला, जिसने कभी घर की देहरी के बाहर कदम न रक्खा हो,युवा अवस्था में विधवा हो जाने के पश्चात कैसे अपने ५ बच्चों की परवरिश कर पायी होगी ? मैं  अभाव की स्थिति में,  उनके  कठिन,संघर्षपूर्ण,संस्कार युक्त जीवन का साक्षी रहा हूँ | उस समय भी उन्होंने अपने सारे पारिवारिक, सामाजिक,धार्मिक कृत्यों का निर्वहन जिस कुशलता से किया था, वही मेरे जीवन का पाथेय बन गया  | यह पाथेय ही है जो मुझे जिन्दा रखे हुए है, नहीं तो यह भावना जगत का प्राणी जाने कब का निराशा के तम से आच्छादित हो चुका होता |

                                           मेरी माँ ने बचपन से इस संस्कार को ,कि रास्ते में पड़े सोने को मिट्टी समझना, मेरे अंतर्मन में इतनी दृढ़ता  से स्थापित कर दिया था कि आज तक जीवन में आने वाले तमाम लुभावने प्रलोभन, मुझे अपने मार्ग से डिगाने में सक्षम नहीं  हो सके | मेरी माँ मृत्यु के पहिले शरीर भाव से ऊपर उठ चुकी थीं  और तभी मुझे लगा था कि सुख-दुःख शरीर का धर्म है, आत्मा का नहीं | कई वर्षों तक,वह अस्वस्थ रहीं  पर उनके चेहरे पर एक ऐसी शांति थी जैसे समुद्र की लहरें एकदम शांत हो गयी हों  | मन,संकल्प-विकल्प से परे हो गया हो |

                                                    माँ के साकेत गमन के पश्चात् मेरे जीवन में एक ऐसा शून्य पैदा हो गया कि मुझे लगा कि कहीं मैं विक्षिप्त न हो जाऊँ | दो वर्षों तक माताजी बिस्तर पर रहीं | मेरा अधिकतर समय उनके पास ही गुजरता था | उनकी सेवा में, उन्हें गीता,रामायण,पुराण सुनाने में,दिन कब बीत जाता था,पता ही नहीं लगता था | अब दिन काटे नहीं कटता था | तभी एक मित्र ने फ़ोन करके बताया कि मेरा स्थानान्तरण  प्रस्तावित है, उन्होंने यह भी पूंछा  कि कहाँ जाना चाहते हो ? मैंने कहाँ जहाँ प्रभु भेज देंगे, चला जाऊँगा  | उनके और अन्य मित्रों के रोज फ़ोन आने लगे,सब का बस इसी पर जोर रहता कि मैं मनवांछित जगह बता दूँ,जिससे वे लोग प्रयास करके, वहीं मेरा तबादला करवा दें | सब मुझे यही समझाने का प्रयास करते कि मेरी दो लडकियां  हैं, एक पुत्र है, जब तक यह सब व्यवस्थित न हो जाएँ, मैं वैराग्य की ओर बढ़ रहे अपने कदमो को पीछे कर लूँ |

                                  जब उनके रोज-रोज के फ़ोनों से तंग आ गया तो मैंने उनसे कठोरता से कह दिया कि मैं अपने निश्चय पर,पुनर्विचार के लिये तैयार नहीं हूँ | तब उन्होंने कहा कि आपके  अंतर्मन में क्या है ? मैंने कहा, मेरे अंदर बहुत दिनों से यह इच्छा है कि मैं किसी ऐसी जगह तैनात होऊं,जो तीर्थ हो और जहाँ मुझे प्रतिदिन गंगा या अन्य किसी पवित्र नदी में स्नान का सौभाग्य प्राप्त हो और इसके लिये मैं अपने प्रभु से प्रार्थना करने के अतिरिक्त, अन्य कोई प्रयास नहीं करूंगा | 

                                       प्रभु ने मेरे ऊपर अपनी अहैतुकी कृपा का वर्षण करते हुए मुझे अपने पास तीर्थराज प्रयाग बुला लिया | मैं धन्य हो गया, क्योंकि यहाँ आकर मुझे तीर्थराज की कृपा एवं माँ गंगा की गोद में जी भरकर प्रतिदिन दुलार करने के बाद, रुद्रावतार हनुमान जी को, माँ गंगा के जल से अभिसिंचित करने का सौभाग्य प्राप्त होने लगा | यह मेरी पुण्यमयी माँ के आशीर्वाद का ही फल था कि प्रभु ने मेरी वर्षों की यह अतृप्त  कामना को अपनी कृपा से पूर्ण कर दिया | मनुष्य कामनाओं का दास है,एक इच्छा पूरी होती है, तत्काल दूसरी इच्छा का जन्म हो जाता है | प्रयाग आये मुझे चार महिने हो गये थे किन्तु अभी तक मैं सतसंग से वंचित था | 

                                     प्रभु की फिर  कृपा हुई और एक दिन आश्चर्यजनक ढंग से मुझे अपने इस जन्म के गुरूजी से भेंट हो गयी और तब मुझे लगा कि प्रभु ने इसी लिये मुझे प्रयाग भेजा था | मुझे एक ऐसे सामर्थ्यवान गुरु मिल गये, जिन्होंने मेरे भटकाव को समाप्त कर दिया | मेरे जीवन में, ६ महिने की उम्र में जो पिता का अभाव हो गया था, वह प्रभु ने गुरु के रूप में, पिता को, ब्याज सहित वापिस करके मुझे कृतकृत्य कर दिया | मैं प्रभु की इस कृपा से अभिभूत हो गया | मैं गुरु के रूप अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त करने लगा और पिता के रूप में, झगड़ा करके उनसे अपनी भौतिक कमियों को भी पूरा करने की जिद करने लगा | मेरे गुरु,मेरे पिता,मेरे भगवान ने मेरी वह सभी अतृप्त कामनाएं पूरी कीं , जिनकी एक सांसारिक पुरुष कल्पना ही कर सकता है | मैं उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता |
                                                     
                                          अब जो बात मैं कहने जा रहा हूँ, उसके लिये उपरोक्त बातें एक भूमिका के रूप में कही गयीं है | मैं जब गुरु जी के संपर्क में आया ही था तभी मुझे यह ज्ञात हो गया था कि गुरु जी अपनी शरीर लीला का संवरण, काशी में करना चाहते हैं | मेरी सहचरी की उपस्थिति में, उनके एक शिष्य ने पूंछा,"आप काशी वास कब से करेगें ?" गुरूजी ने मेरी पत्नी की ओर इशारा करके कहा," जब इस माता के पति,सेवानिवृत हो जायेगें |" यह एकदम शुरू की बात है | मैंने गुरूजी से कहा कि काशी वास के लिये, मेरे सेवानिवृति तक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नही है, केवल मेरे सांसारिक उत्तरदायित्वों  से मुझे मुक्त करा दें, मैं त्यागपत्र देकर उनके साथ काशीवास करूंगा | गुरूजी की कृपा से एक वर्ष के अंदर ही मेरे तीनों  बच्चे अच्छी नौकरी पा गये और तीनों  का विवाह, बिना दहेज के सकुशल सम्पन्न हो गया | मैं गुरूजी को लेकर दो-तीन बार काशी,रहने के स्थान के चयन के लिये गया पर कोई स्थान समझ में नहीं आया | गुरु जी, काशी के अपने परिचित संतों को, स्थान तलाश करने के लिये कहकर, वापिस आ गये | 

                                         इसी समय उन्होंने अपने गुरूजी से काशीवास की अनुमति चाही तो उन्होंने कहा कि प्रयागराज क्या काशी से कम हैं जो तुम काशी जाना चाहते हो ? इधर मेरे अंदर पारिवारिक मोह की वृद्धि  होने लगी थी | मैं अपने कई अनुभवों के बाद यह जान गया था कि मेरे गुरूजी अन्तर्यामी हैं | जो भी कारण रहा हो, गुरुजी का काशीवास का प्रयास शिथिल हो गया | इधर मेरे बढ़ते हुए पारिवारिक मोह को ख़त्म करने के लिये गुरु जी के आशीर्वाद से और प्रभु की महती कृपा से जीवन में कुछ ऐसे घटनाएँ घटीं  कि मोह में तो विराम लगा ही ,  जीवन की नश्वरता का भी भान होने लगा | मैं यह तो नहीं कह सकता कि मोह ख़त्म हो गया है पर हाँ गुरु जी की कृपा से,"सबकै ममता ताग बटोरी,मम पद मनहि बाँध बर डोरी" को जीवन में उतारने का प्रयास शुरू कर दिया है | 

                    गुरूजी पिछले दो वर्षों से अस्वस्थ चल रहे हैं  | उन्होंने एक वर्ष पूर्व ही शरीर छोड़ने की घोषणा कर दी थी | उन्होंने मुझसे यह वचन ले लिया था कि मैं स्वयं , या अन्य किसी को, उन्हें अस्पताल नहीं ले जाऊंगा या ले जाने दूंगा | उत्तरायण लगते ही, जो थोड़ा सा दूध किसी तरह,अनिच्छा एवं कष्ट के साथ उन्हें लेना पड़ता था, उसे लेना उन्होंने बंद कर दिया | दो दिन बीत गए, वह किसी का भी अनुरोध स्वीकार नहीं कर रहे थे, तब मजबूर होकर मुझे उनके गुरु जी,जगतगुरु शंकराचार्य(बदरिका पीठ) स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती जी को, उनके इस निर्णय की सूचना देनी पड़ी | 

                                     शंकराचार्य जी आये और उन्होंने एक संत की कथा सुनायी कि संत जी अपने आश्रम से एक वृक्ष  कटवाना चाहते थे तो उस वृक्ष  ने रात्रि में,संतजी के स्वप्न में आकर उनसे अनुरोध किया कि अभी उसकी आयु पूरी नहीं हुई है ऐसे में असमय उसे कटवा देने पर,उसे फिर से वृक्ष  योनि में ही जन्म लेना पड़ेगा | संत जी ने वृक्ष  कटवाने का विचार मन से निकाल दिया | यह घटना सुनाकर , शंकराचार्य जी ने गुरूजी को हठ करके शरीर  त्यागने के लिये मना किया | गुरूजी ने अपने गुरु के आदेश को स्वीकार करके हठ पूर्वक शरीर त्यागने का विचार मुल्तवी कर दिया |
                                                  
                                         पहिले गुरु जी, हमारी बातों पर, हंसकर या गुस्सा करके अपनी प्रतिक्रिया देते थे | पर इधर कुछ दिनों से, उन्होंने प्रतिक्रिया देना बंद कर दिया है | उनका दिमाग और मन पूरी तरह से सजग एवं स्वस्थ है |सूर्य के उत्तरायण आने में एक महिने और कुछ दिन रह गये हैं | मन काँप सा जाता है यह सोचकर कि कहीं वह उत्तरायण का इंतजार तो नहीं कर रहे |

                                  उनके लीला संवरण के बाद मैं कैसे रह पाऊँगा  ? कौन स्निग्ध  तरलता के साथ मेरा सिर सहलायेगा ? किसके कंधे पर सिर टिकाकर, किसकी गोद में मुंह छिपाकर,रो-रो कर अपने को हल्का कर पाऊँगा  ? कौन पोछेगा मेरे आंसू ? कौन स्वयं जाकर लायेगा मेरी मनपसंद चीजें ? कौन अपने हाथों से परस कर मुझे खिलायेगा ? इन सब की कल्पना ही, मन को विचलित कर देती है, प्रत्यक्ष क्या घटेगा,प्रभु जाने | प्रभु ने मेरी सारी इच्छाएं अब तक पूरी की हैं, बस प्रभु एक इच्छा और पूरी कर देना कि मुझे गुरूजी (जीवन के उत्तरार्ध में मिले पिता) के वियोग को सहने की, सामर्थ्य मत प्रदान कर देना | यदि यह तुझे मंजूर न हो तो मुझे भी गुरूजी की तरह इस भाव भूमि पर स्थापित कर देना कि,"सुख-दुःख,शरीर का धर्म है, आत्मा का नहीं |"
                                                        शेष प्रभु कृपा |
                                             

Friday, 2 December 2011

पत्तों पर घिर आयी गुमसुम सी शाम

कुम्हलाये होठों  पर फैली    मुस्कान
पत्तों पर घिर आयी गुमसुम सी शाम

                          सड़कों औ गलियों  पे दृष्टियाँ  टंगी
                          बुझे हुए खम्भों  पे बत्तियाँ  जलीं 

 पिंजरे का सुआ रटने लगा राम-राम
 पत्तों पर घिर आयी गुमसुम सी शाम

                           आँगन के तुलसी  पे आरती  सजी
                           दूर कहीं मंदिर  पे  घंटियाँ    बजीं

 अन्तस में उभरा है फिर कोई    नाम
  पत्तों पर घिर आयी गुमसुम सी शाम


Thursday, 1 December 2011

कुछ पुरानी कवितायेँ

आज पुरानी फाइलों में दो पन्ने पड़े मिल गये | यह पन्ने बहुत ही जीर्ण अवस्था में हैं ,अत: इन्हें सुरक्षित करने की दृष्टि  से,बगैर इनमे कोई संशोधन किये,उतार रहा हूँ | चूँकि कभी डायरी नहीं बनायी, इसलिये जब पीड़ा घनीभूत हो जाती थी तो उसे पन्नो में उतारकर हल्का हो जाता था | निम्नांकित कविता कागज के नैपकिन  में दिनांक १३--२००३ को अवतरित हुई है -

मैं आभारी हूँ, तुम सब का, मेरे बच्चों 
तुम सब ने मिलकर, मुझे पहुंचा दिया है
 आज से तीस साल पहिले,
तीस साल पहिले
 जब मेरी रातें बीतती थीं
 स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म में, चाय की दुकानों में
 देश को लेकर, समाज को लेकर,
 मुट्ठियाँ भींचकर चिल्लाते, तीखी बहसों में
बंधी हुई मुट्ठियाँ, तने हुए चेहरे, आज भी याद हैं मुझे |
 हम परेशान रहते थे
 घिसी-पिटी परम्पराओं से, बोर्जुआ मानसिकता से
 और कुछ भी बदलने की, कसम खा रक्खे,
 दकियानूसी  लोगो से |
 हमें परेशान कर देते थे
 रिक्शा चलाते, चाय की दुकानों में, ढाबों में,
 प्लेट धोते,
 नन्हे-नन्हे बच्चे
 जिनके हाथों में बेमुरुव्व्त वक्त ने
कॉपी , किताबों और पेंसिलों की जगह
 पकड़ा दिये थे
 हथौड़ा, पेंचकस और जूठी प्लेटें |
 बोझा ढोते वह मासूम हाथ
 अंदर तक चीर जाते थे  हमें |
 और हमें लगता था
  कि हम नोच डालें, सफेदी का नकाब ओढ़े, चेहरों को
  कि हम तोड़ डालें, वह सारी की सारी परम्पराएँ
  जो इन्सान को इन्सान नहीं बनने देती |
  रौंद डालें, सारी की सारी धरती, अपने पैरों से
  अपने रक्त से, अपने पसीने से
  और अपने हाथों से बनाये, अपना भारत
  अपने जवान सपनों का भारत
  जो
  मंदिर के घंटे और मस्जिद की अजान के साथ जागे
  सुबह होते ही, सड़कों में गूंजने लगे
  किताबों  का बस्ता सम्हालते 
बच्चों  की धमाचौकड़ी, भागमभाग
आँगन के तुलसीचौरा पर जल चढ़ाती
 दुलहिनो के पायलों की रुनझुन
  हवाओं में गूंजे
  रामायण की चौपाईयां और कुरान की आयतें
  खेतों में बैलों के गले में बंधी घंटियों की टन-टन |
  पर नहीं कर पाया
  मैं
  यह सब
  व्यवस्था को गाली देने वाला ही
  बन गया  इस सड़ी-गली व्यवस्था का एक अंग
  बंधी हुई मुट्ठियाँ पसर कर रह गयीं
  चाहे-अनचाहे के सामने
  और तब मैंने तोड़कर, फ़ेंक दी थी
  कलम
  पर आज तुम सबसे मिलकर
  फिर से कलम उठाने का, हो आया मन
  अन्तस में फिर से घुमड़ने लगे हैं
  प्यार और शांति के बादल
 आँखों  में फिर से पलने लगे हैं
  सपने ,
  सपने
  बच्चों  की निर्मल खिलखिलाहट के सपने
  खनखनाते कंगनों के सपने
  रामायण और कुरान पढ़ते
  तनाव रहित झुर्रीदार चेहरों के सपने
  क्या तुम पूरा कर पाओगे,
  मेरे इन हसीन सपनों  को, मेरे बच्चों  ?