आज डाली ने मनस्विनी की रामचरितमानस पढ़ते हुए एक फोटो अपने फेस बुक में डाली है | फोटो देखकर मन प्रसन्न हो गया | मन में आया कि अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ सन्देश छोड़ जाऊँ | रामचरितमानस के प्रारम्भ में पूज्य तुलसीदासजी ने यह डिमडिम घोष किया है,
" नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोअपि |
स्वान्त:सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषानिबंधमतिमंजुलमातनोति ||"
तुलसीजी के इस स्वान्तःसुखाय में पूरे विश्व का सुख समाहित है | वेद को हमारे यहाँ ज्ञान की अंतिम सीमा माना गया है | जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसका ज्ञान वेदों में समाहित न हो | माँ-पुत्र, पिता-पुत्र, भाई-भाई, राजा-प्रजा, राजा-मंत्री, गुरु-शिष्य,सौत-सौत आदि जितने भी पारिवारिक,सामाजिक सम्बन्ध हो सकते हैं , उन सब की व्याख्या बाबा ने अपनी उपरोक्त घोषणा के अनुसार रामचरितमानस में की है | रामचरितमानस का सम्यक अवगाहन कर लेने पर, अन्य किसी शास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता नहीं रह जाती क्योंकि मानस में सारे शास्त्रों का सार समाहित है |
मेरा अभिप्राय इस समय, रामचरितमानस के अनुसार, पति-पत्नी के संबंधों की व्याख्या करने का है | वैसे तो आध्यात्मिक दृष्टि से प्रभु श्रीराम, स्वयं साक्षात् ब्रह्म है और माँ सीता उनकी आह्लादनी शक्ति या उनकी माया है | इन दोनों में कोई भेद नहीं है | मानस के प्रारंभ में बाबा ने युगल स्वरुप के चरणों की वंदना करते हुए स्पष्ट कहा है,
"गिरा-अरथ, जल-बीचि, सम, कहियत भिन्न न भिन्न
बंदऊँ सीता राम पद, जिनहि परम प्रिय खिन्न ||"
मानस में मनु और सतरूपा को वरदान देते समय प्रभु राम स्पष्ट घोषणा करते है ," आदि शक्ति जेहिं जग उपजाया, सो अवतरिह मोरि यह माया " इस तरह आध्यात्मिक दृष्टि से दोनों में कोई भेद नहीं है | लीला की दृष्टि से ही सही , प्रभु ने मानस में एक आदर्श दम्पति का जो स्वरुप दिखलाया है,वह हम सब के लिए अनुकरणीय है | सीता और राम की प्रथम भेंट जनकजी की वाटिका में होती है| यह वह वाटिका है जो कि सुखसागर को भी सुख प्रदान कर रही है,"परम रम्य आराम यह जो रामहि सुख देत "| जनकजी की इस वाटिका में राम को गुरु वशिष्ठ ने पूजा के लिए पुष्प लेने के लिए भेजा है और सीता को उनकी माँ ने देवी पूजन के लिए | राम के साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण हैं और सीता के साथ उनकी सखियाँ हैं | सीता जी ने सरोवर में स्नान करके गिरिजा मंदिर में जाकर माँ गिरिजा की पूजा करके उनसे अपने लिए, सुभग वर की याचना की |
उसी समय एक सखी सीता जी से विलग होकर, फुलवारी देखने के लिए चली गयी, वहां उसे राम और लक्ष्मण के दर्शन होते हैं | वह सखी उन दोनों के दर्शन से मुग्ध हो जाती है और भागकर सीता एवं सखियों के पास आती है, सखियाँ उससे उसकी प्रसन्नता का कारण पूंछती हैं | तब वह दोनों राजकुमारों का , उनके अप्रतिम सौंदर्य के साथ वर्णन करती है | सभी सखियों सहित सीता प्रसन्न हो जाती हैं, एक सखी कहती है कि यह वही होगें जो कल विश्वामित्रजी के साथ आये है और जिन्होंने अपने मोहक सौंदर्य से सारे नगरवासियों को मोह लिया है | जहाँ तहां लोग उन्हीं के सौंदर्य का वर्णन कर रहे हैं, हमें भी चलकर उन्हें देखना चाहिए | सखी की यह बात सीताजी को बहुत अच्छी लगती है, वह उसी सखी को आगे करके चल पड़ती हैं | सीताजी की पुरातन प्रीति को कोई समझ नहीं पाता | सीताजी को नारदजी के वचनों के स्मरण से पवित्र प्रीति का अवतरण होता है और वह डरी हुई मृगछोनी की तरह चकित होकर इधर-उधर देखने लगती हैं |
इधर पुष्पवाटिका में पूजा के लिए पुष्प संचयन के लिए,लक्ष्मण के साथ आये हुए राम को सीताजी के हाथों के कड़े,करधनी,एवं पायजेब की ध्वनि इस तरह सुनायी पड़ती है,"मानहु मदन दुंदभी दीन्ही, मनसा विश्व कहं कीन्ही" यानि यह ध्वनि ऐसे सुनायी पड़ती है कि जैसे कामदेव ने विश्व पर विजय प्राप्त करने का संकल्प लेकर डंके पर चोट की हो | लक्ष्मण से ऐसा कहकर राम ध्वनि की दिशा की ओर देखने लगते हैं | सीता के मुखरूपी चंद्रमा को देखते ही राम के नेत्र चकोर बन जाते हैं और उनकी पलकों का गिरना बंद हो जाता है | यानि राम की दृष्टि स्थिर हो जाती है | इसके बाद राम लक्ष्मण से बताते हैं कि,''तात जनकतनया यह सोई, धनुषजग्य जेहि कारन होई"| सीताजी के इस परिचय के साथ अपने छोटे भाई को इशारे से यह भी संकेत कर देते हैं कि यही तुम्हारी होने वाली भाभी भी हैं ,
"जासु बिलोकि अलौकिक शोभा, सहज पुनीत मोर मनु छोभा ||
सो सब कारन जान विधाता, फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता ||"
आगे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मैं रघुवंशी हूँ और रघुवंशियों का यह सहज(जन्मगत) स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता है | मुझे अपने मन पर पूरा विश्वास है,जिसने स्वप्न में भी परायी स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली है,पर इनको देखकर मेरा मन क्षुब्ध हुआ है और मेरे शुभ अंग भी फड़क रहे हैं | इसका तो कारण विधाता ही जानता है पर इन सब का इशारा इसी ओर है कि मेरे जीवन में कुछ शुभ घटने वाला है | उधर सीताजी राम को न देख कर चिंतित हो रही हैं , तभी उनकी सखी राम और लक्ष्मण के दर्शन करा देती हैं,
"लताभवन ते प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाई |
निकसे जनु जुग विमल बिधु जलद पटल बिलगाई ||"
इस तरह यह राम और सीता के पावन मिलन के दृश्य थे जिसे तुलसीदास जी की लेखनी ने सजीव कर दिया है |ब्लॉग लिखते-लिखते मन में विचार आया कि जिस पीढ़ी के लिये मैं यह लिख रहा हूँ,उसके पास यह सब पढ़ने के लिये समय एवम समझ होगी | यह विचार आते ही लगा कि संक्षेप कर देना चाहिये |
सीता विवाह के पश्चात् विदा होकर अयोध्या आती हैं और अपनी सेवा से सभी को अपने वश में कर लेती हैं | सीता एक राजा की पुत्री थीं और एक चक्रवर्ती सम्राट की पुत्रवधू | मायके और ससुराल दोनों जगह दास और दासियों की भरमार थी,पर सीता अपने पति, सास, ससुर की सेवा स्वयं करती थीं |
राम के वनगमन के प्रसंग में सीता का आदर्श पत्नी का रूप देखते ही बनता है | सब सीता को समझा रहे हैं कि तुम्हे तो वनवास दिया नहीं गया है, "तुमहि तो राय न दीन्ह बनवासू", अत: तुम वन मत जाओ, वन के क्लेश तुम सह नहीं पाओगी, तुम्हारा जन्म एक राज परिवार में हुआ है और एक राज परिवार में तुम्हारा विवाह हुआ है,तुमने अब तक अपने जीवन में दुःख देखा ही नहीं है, कैसे सह पाओगी वन के कठिन जीवन को ? तुम्हारी स्थिति तो यह है, "चित्र लिखित कपि देखि डेराती" जब तुम बंदर के चित्र को देख कर डर जाती हो तो वहां वन में तो भयंकर जीव-जंतु और मांसाहारी राक्षस भी मिलेंगे,कैसे रह पाओगी वन में ? तुम कुछ दिन मायके में और कुछ दिन ससुराल में, जहाँ भी तुम्हारा मन करे,वहां रहकर यह १४ वर्षों की अवधि को गुजार लो |राम भी सीता को समझाते हैं |
पर सबको सीता बड़ी शालीनता से निरुत्तर कर देती हैं | वह कहती हैं कि यदि व्यक्ति से उसकी छाया को अलग किया जा सकता हो, यदि चंद्रमा से उसकी चांदनी को अलग किया जाना संभव हो तो आप मुझको भी अलग कर सकते हैं , पर अगर यह संभव नहीं है तो मुझे भी राम से अलग करना संभव नहीं है | यदि आप लोग जिद करेंगे तो शरीर तो यहाँ रह जायेगा पर प्राण तो प्रभु राम के साथ ही जायेगें | जहाँ तक वन के क्लेशों का प्रश्न है, मुझे राम की सेवा से, उनके साथ रहने से मिलने वाले सुख से इतना अवकाश ही नहीं मिलेगा कि मैं क्लेशों का अनुभव कर सकूँ और जहाँ तक भयंकर वनचरों या मांसाहारी राक्षसों का प्रश्न है कि प्रभु राम के रहते हुए कोई मेरी तरफ देख भी सके, इसलिए आप लोग निश्चिन्त हो जाइए और मुझे अपने पति के साथ जाने दीजिये | मैं किसी भी हालत में अपने पति का साथ नहीं छोड़ सकती | इस सन्दर्भ में मानस की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं,
"मोहि मग चलत न होइहि हारी | छिनु-छिनु चरन सरोज निहारी ||
सबहि भांति पिय सेवा करिहौं | मारग जनित सकल श्रम हरिहौं ||
पाय पखारि बैठि तरु छाहीं | करिहिउं बाउ मुदित मन माहीं ||
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें | कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें ||
सम महि त्रन तरुपल्लव डासी | पाय पलोइटहि सब निसि दासी ||
बार-बार मृदु मूरति जोही | लागिहि तात बयारि न मोही ||
को प्रभु संग मोहि चितवनिहारा | सिंघबधुइह जिमि ससक सिआरा ||
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू | तुमहि उचित तप मो कहुं भोगू ||
ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न हृदय बिलगान |
तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्रान ||"
मेरी प्यारी-प्यारी नातिन, मैं तुम्हे लिखना तो बहुत चाहता था पर तुम्हारी नानी रोज लिखते समय झगड़ा करती हैं कि कौन सुनेगा तुम्हारी यह बकवास ? तुमने अपने बच्चों को प्यार करना सिखाया,अपने बड़ों को आदर देना सिखाया, इस मुखौटों वाले समाज में, बगैर मुखौटे के जीने के लिये उत्प्रेरित किया, तो उनको अपने को साबित करने के लिये, कितना संघर्ष करना पड़ा ? अत: तुम मेरी नातिन को अपनी निगाह से दुनिया देखने दो | बेटी , जब तुम यह पढ़ रही होगी तब मैं ऊपर से ढेर सारे आशीर्वाद दे रहा हूँगा |
शेष प्रभु कृपा ||
तुम्हारा नाना एवम नानी
excellent thoughts.
ReplyDeleteHad waited quite some time for this particular blog... Collection of thought sequence is really very beautiful... Please keep on writing.
ReplyDeleteSo beautifully compiled very inspirational
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