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यह एक प्रचलित मुहावरा है जो कि ऐसी स्थिति के लिए प्रयोग किया जाता है जिसमें किसी घटना को न नकारते बनता है और न ही स्वीकारते बनता है । इस भाव को "न निगलते बनता है न उगलते बनता है" मुहावरे के द्वारा,ज़्यादा स्पष्ट किया जा सकता है ।
इस मुहावरे का शाब्दिक अर्थ है सॉंप और छछून्दर के तरह की हालत हो जाना । अब प्रश्न यह उठता है कि यह सॉंप-छछून्दर की गति है क्या ?
जब सॉंप भूख के कारण छछून्दर को पकड़ कर आधा लील लेता है तो उसे याद आता है कि यदि वह छछून्दर को खा लेता है तो उसे क्षय रोग हो जायेगा और अगर वह छछून्दर को छोड़ देता है तो उसकी विसर्जित वायु उसे अंधा कर देगी । इसी भय के कारण न वह छछून्दर को निगल पाता है और न ही छोड़ पाता है ।
इसी तरह साधक जब अपनी साधना में आगे बढ़ता है और उसे साधना में रस की अनुभूति होने लगती है,ठीक उसी समय माया मोह के बन्धनों में कस कर उसे जकड़ लेती है और उस साधक की गति "भइ गति सॉंप-छछून्दर केरी" की तरह हो जाती है । एक तरफ़ प्रारम्भिक रसानुभूति का आकर्षण उसको अपनी ओर खींचता है तो दूसरी तरफ़ माया का मायाजाल,जिसमें परिवार का मोह,धन का मोह,और-और-और सबसे बड़ा यश का मोह,उसे साधना में आगे बड़ने से रोक देती है और वह मायाजाल में फँस जाता है ।
अब प्रश्न यह उठता है कि माया ऐसा क्यों करती है ? तो उसका जवाब यह है कि माया भगवान की पत्नी है,इसीलिए भगवान को मायापति कहा जाता है और कोई भी पत्नी नहीं चाहेगी कि कोई दूसरा उसके पति की तरफ़ आगे बढ़े और उसे सौत का दु:ख झेलना पड़े ।