Saturday, 22 August 2015

"भइ गति सॉंप-छछून्दर केरी"

"भइ गति सॉंप-छछून्दर केरी"
--------------------------

यह एक प्रचलित मुहावरा है जो कि ऐसी स्थिति के लिए प्रयोग किया जाता है जिसमें किसी घटना को न नकारते बनता है और न ही स्वीकारते बनता है । इस भाव को "न निगलते बनता है न उगलते बनता है" मुहावरे के द्वारा,ज़्यादा स्पष्ट किया जा सकता है ।

इस मुहावरे का शाब्दिक अर्थ है सॉंप और छछून्दर के तरह की हालत हो जाना । अब प्रश्न यह उठता है कि यह सॉंप-छछून्दर की गति है क्या ? 

जब सॉंप भूख के कारण छछून्दर को पकड़ कर आधा लील लेता है तो उसे याद आता है कि यदि वह छछून्दर को खा लेता है तो उसे क्षय रोग हो जायेगा और अगर वह छछून्दर को छोड़ देता है तो उसकी विसर्जित वायु उसे अंधा कर देगी । इसी भय के कारण न वह छछून्दर को निगल पाता है और न ही छोड़ पाता है ।

इसी तरह साधक जब अपनी साधना में आगे बढ़ता है और उसे साधना में रस की अनुभूति होने लगती है,ठीक उसी समय माया मोह के बन्धनों में कस कर उसे जकड़ लेती है और उस साधक की गति "भइ गति सॉंप-छछून्दर केरी" की तरह हो जाती है । एक तरफ़ प्रारम्भिक रसानुभूति का आकर्षण उसको अपनी ओर खींचता है तो दूसरी तरफ़ माया का मायाजाल,जिसमें परिवार का मोह,धन का मोह,और-और-और सबसे बड़ा यश का मोह,उसे साधना में आगे बड़ने से रोक देती है और वह मायाजाल में फँस जाता है ।

अब प्रश्न यह उठता है कि माया ऐसा क्यों करती है ? तो उसका जवाब यह है कि माया भगवान की पत्नी है,इसीलिए भगवान को मायापति कहा जाता है और कोई भी पत्नी नहीं चाहेगी कि कोई दूसरा उसके पति की तरफ़ आगे बढ़े और उसे सौत का दु:ख झेलना पड़े ।

Thursday, 20 August 2015

"जीवन के वे पल" के प्राक्कथन पर टिप्पणी

आदरणीय भ्राता श्री रमाकान्त जी ने आदेश दिया है कि मैं उनके काव्य संकलन "जीवन के वे पल" के प्राक्कथन पर अपनी टिप्पणी 
दूं ।

कवि ने "अपनी बात" में तीन बातों पर ज़ोर दिया है ।

१-साहित्य (निबन्ध,कहानी,उपन्यास,कविता आदि कोई भी विधा) जीवन के लिए है । जीवन से इतर न तो कोई महत्व है और न ही कोई उपादेयता ।

२-साहित्य को सम्प्रेषणीय होना चाहिए । पाठक को उसे समझने के लिए माथा-पच्ची न करनी पड़े ।

३-लेखक को अपनी रचना में कोई संदेश निष्कर्ष के रूप में देना चाहिए जो मानवीय मूल्यों के अनुकूल हो ।

१-"साहित्य समाज का दर्पण है" चूँकि साहित्य समाज का दर्पण है,अत: जैसा समाज होगा,जैसे सामाजिक मूल्य होंगें,वही साहित्य रूपी दर्पण में प्रतिविम्बित होगा । हॉं यदि साहित्यकार ने अपने दर्पण को अपने विचारों से मैला कर रक्खा है तो प्रतिविम्ब पूरी शिद्दत के साथ नहीं उभरेगा । अत: यह स्वंयसिद्ध है कि साहित्य का जीवन से इतर न तो कोई महत्व है और न ही कोई उपादेयता ।

२-महाकवि तुलसी संस्कृत के उद्भट विद्वान थे,यह रामचरितमानस के प्रत्येक अध्याय का मंगलाचरण प्रमाणित करता है,इसके बाद भी उन्होंने प्राकृत भाषा (हिन्दी) में काव्य रचना मात्र इसलिए की कि जिससे वह जन सामान्य के पास सीधे पहुँच सके,जबकि इसके लिए,उन्हे तत्कालीन विद्वत् समाज की प्रताड़ना भी सहनी पड़ी ।

केशव ने भी "रामचन्द्रिका" लिखकर राम का ही चरित्र गाया है,पर उन्हें, साहित्य के विद्यार्थी को छोड़कर कोई नहीं जानता और वह भी उन्हे "कठिन काव्य के प्रेत" के रूप में उल्लखित करता है ।
अत: वही साहित्य कालजयी हो पाता है जो शाश्वत् मूल्यों की स्थापना करता है और पाठक के ह्रदय के साथ सीधे रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने में सक्षम होता है ।

३-मानवीय मूल्यों की गिरावट ही रचनाकार को लेखन के लिए बाध्य करती है और मानवीय-सामाजिक मूल्यों की पुनर्स्थापना ही उसका उद्देश्य होता है । बिना इस उद्देश्य के ध्यान में रक्खे किया गया लेखन, लेखकीय क्षमता का दुरुपयोग तो हो सकता है,साहित्य नहीं ।

Tuesday, 18 August 2015

"जीवन के वे पल"

कल गुजरात पहुँचने पर भ्राताश्री रमाकान्त सिंह जी द्वारा भेंट की गई पुस्तक "जीवन के वे पल" प्राप्त हुई । यात्रा की थकान के कारण कुछ कविताएँ कल पढ़ी, शेष आज पढ़ी । पढ़ने के तुरन्त बाद मन में कुछ कहने का विचार आया । विगत १० दिनों से जड़ता की स्थिति में जी रहा था, इस पुस्तक ने वह जड़ता तोड़ी और मैं विवश हो गया आप सब से मुख़ातिब होने के लिए ।

"जीवन के वह पल" जीवन की वह गाथा है जिसमें जीवन के हर अंग को विभिन्न रंगों में, कवि की लेखनी ने,इतने भावपूर्ण ढंग से भरा है कि मन जैसे ही 'वह जाती आगे आगे' में रूमानियत की बाँहों में डूबने को होता है कि तभी 'सत् पुरुषों के नाम' के सामाजिक और राजनैतिक विद्रूपताओं के दंश उसे तिलमिला देते हैं । नन्ही 'आरिका' की चुलबुलाहट जैसे ही मन को आह्लाद से आप्लावित करती है कि वैसे ही 'द्रौपदी' में नारी जीवन की अभिशापिता नेत्रों में अश्रु भर देती है । 'यक्ष प्रश्न' हमारे सामने ऐसे प्रश्न खड़े करता है,जिसके जवाब प्रभु ही दे सकते हैं ।

'३१ जनवरी,१९९४','दिवाली-१९९२' जीवन के नैराश्य को समाप्त कर,आशा का एक नया आकाश गढ़ती है ।'तुमने कहा था' में कवि का आक्रोश प्रकट हुआ है तो 'मन वीणा के तार न तोड़ो','हर पंछी को नीड़ चाहिये' में जिजीविषा का सौन्दर्य अपनी पूरी गरिमा के साथ मुखरित होता है ।

संकलन की हर कविता एक नयी भाव सृष्टि का सृजन करती है ।'वरदान' में जिस वरदान की याचना अपनी पूरी अस्मिता के साथ,प्रभु से की गयी है, उसमें 'याचना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला दो' के साथ प्रभु से यह भी प्राथना है कि वह कवि को एक स्वस्थ और लम्बा जीवन प्रदान करे,जिससे हम सभी उनकी भावपूर्ण, विचारपूर्ण,गहन संवेदनाओं,दीर्घ अनुभवों से युक्त रचनाओं से प्रेरणा ग्रहण करते रहें ।


Saturday, 1 August 2015

Friendship Day पर

Friendship Day पर

आज पूरा संसार Friendship Day मना रहा है । हमारी संस्कृति में मित्र कैसा होना चाहिए ? किस तरह के मित्र से दूर रहने में ही भलाई है ? इसका सुन्दर विवेचन "मानस" में प्रभु राम द्वारा सुग्रीव से किये गये वार्तालाप में,हुआ है । इस वार्तालाप में श्रुतियों का सार निहित है ।

"जे न मित्र दुख होहिं दुखारी, तिन्हहि बिलोकत पातक भारी
 निज दुख गिरि सम रज करि जाना,मित्रक दुख रज मेरु समाना"
( जो लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं होते, उन्हे देखने से ही बड़ा भारी पाप लगता है । अपने पर्वत के समान दुख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान माने ।)
"जिन्ह के असि मति सहज न आई, ते सठ कत हठि करत मिताई
 कुपथ निवारि सुपंथ चलावा, गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा"
( जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी मति प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं ? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे । उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे ।)
"देत लेत मन संक न धरई, बल अनुमान सदा हित करई
 विपति काल कर सतगुन नेहा, श्रुति कह संत मित्र गुन नेहा"
( देने-लेने में मन में शंका न रखे । अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे । विपत्ति के समय में तो सदा सौगुना स्नेह करे । वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं ।)

यह तो थे मित्र के लक्षण । अब कैसे मित्रों को छोड़ देने में ही भलाई है, इसका निरूपण निम्न चौपाई में है ।

"आगें कह मृदु बचन बनाई, पाछे अनहित मन कुटिलाई
 जाकर चित अहि गति सम भाई, अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई"
( जो सामने तो बना-बनाकर कोमल बचन कहता है और पीठ पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है-हे भाई!(इस तरह)  जिसका मन सॉंप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है ।)

मित्रता दिवस पर मैं सभी मित्रों का ह्रदय से स्मरण करते हुए, प्रभु को आज के दिन आभार प्रकट करता हूँ कि उन्होंने मुझे आप जैसे प्यारे मित्र दिए हैं, जिसके कारण मेरा जीवन रस और आनन्द से आपूरित हो सका ।