Monday, 11 December 2017

रावण के लात मारने पर जीव का उद्धार

"मोह दशमौलि तद्भ्रात अंहकार
पाकारजिति काम विश्राम हारी"

विनय-पत्रिका में दशमौलि (रावण) को मोह का प्रतीक माना गया है।
मोह का परिवार बहुत व्यापक होता है। शरीर/परिवार/मित्र/वस्तुएं/जन्म स्थान/गुरु/आश्रम आदि तमाम जगह जीव का मोह होता है।
रावण का परिवार भी बहुत व्यापक है,
"एक लख पूत सवालख नाती
ता रावण के घर दिया न बाती"
मानस में मानस रोगों के वर्णन में सारी व्याधियों की जड़ कहा गया है,
"मोह सकल व्याधिन कर मूला
तिन ते पुनि उपजहिं बहु सूला"

जीव को मोह पर नियंत्रण कर पाना बहुत ही कठिन है पर यदि मोह ही जीव को लात मारकर अपने घर से भगा दे तो जीव का कल्याण हो जाता है कयोंकि तभी प्रभु उसकी शरणागति को स्वीकार करते हैं।

रावण जानता है कि उसका भाई विभीषण उसके दुश्मन राम का भक्त है। वह मोह के कारण उसे मना नहीं कर पाता।
"रामायुध अंकित गृह शोभा वरनि न जाय
नव तुलसिका बृंद तंह देखि हरिष कपिराई
लंका निशचर निकर निवासा
इहां कहां सज्जन कर बासा"----मानस

विभीषण को तब तक रावण बर्दास्त करता है जब तक वह सीता को राम को देने की बात नहीं करता। जैसे ही विभीषण सीता को राम को देने और शरणागति की बात करता है,तभी रावण यानि मोह ने लात मारकर विभीषण यानि जीव का त्याग कर दिया है। जीव का मोह नष्ट होते ही उसे प्रभु की शरणागति प्राप्त हो जाती है।
"मम पुर बस तपसिन्ह पर प्रीती
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहुं नीतीश
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा
अनुज गहे पद बारहि सारा"---मानस

इसी प्रकार शुक जो रावण के गुप्तचर के रूप में राम जी के शिविर में गया था और वहां पकड़ लिए जाने पर लक्षमण जी उसको पिटाई से बचाकर रावण के लिए एक पत्थर देकर उसे वापिस लौटा भेज देते हैं। शुक वापिस आकर रावण को समझाता है और वह भी सीता जी को वापिस करने की बात करता है,तभी रावण(मोह) उसको भी लात मारकर भगा देता है और वह भी प्रभु राम की शरणागति में पहुंच जाता है।

"जनक सुता रघुनाथहि दीजे
एतना कहा मोर प्रभु कीजे
जब तेहि कहा देन वैदेही
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही
नाग चरन सिरु चला सो तहां
कृपा सिंधु रघुनायक जहां
करि प्रनाम निज कथा सुनाई
राम कृपा आपनि गति पाई"----मानस

"केशव केशन असि करी जो अरिहू न कराय
चंद्रबदनि मृगलोचिनी बाबा कहि कहि जांय" - - - केशव दास।
अर्थात केशव दास जी कहते हैं कि मेरे केशों ने मेरे साथ ऐसा किया है कि कोई दुश्मन भी ऐसा नहीं करता। इन्हीं सफेद बालों के कारण ही चंद्रमा के समान मुख वाली और हिरनी के समान नेत्रों वाली युवतियां मुझे बाबा कह कह कर बुलाती हैं।
मानव का शरीर तो बृद्धावस्था में जीर्ण-शीर्ण हो जाता है पर उसका मन हमेशा जवान बना रहता है। उसकी अतृप्त कामनाएँ और वासनाएं उसे अंतिम सांस तक परेशान करती हैं। इस संबंध में कबीर का निम्न दोहा भी दर्शनीय और पठनीय है।
"माया मरी न मन मरा मर मर गया शरीर
आशा तृष्णा न मरी कह गये दास कबीर"
इससे बचने का केवल एक ही उपाय बताया गया है और वह यह कि यदि आप अपनी सारी सांसारिक ममता जिसमें आपकी सांसारिक कामनाएँ और वासनाएं भी शामिल हैं को अपने प्रभु के साथ जोड़ दें तो काम बन सकता है। जैसे आप जीभ के वश में हैं तो आप अच्छे-अच्छे व्यंजन बना कर प्रभु को भोग लगाएं और उनके प्रसाद के रूप में गृहण करें। आपको सौंदर्य अच्छा लगता है आप अपने प्रभु को अपनी इच्छानुसार सजाएँ यदि भौतिक सामर्थ्य न हो तो भाव से श्रृंगार करें और सौंदर्य का आनंद लें। यदि हम ऐसा कर सकें तो यही मानवीय कमजोरियां हमारे लिए अभिशाप की जगह वरदान बन जायेंगी।
"सबकै ममता ताग बटोरी मम पद मनहि बांधि बर डोरी"---तुलसी।
सारी ममताओं को इकठ्ठा करके और फिर उसे बट करके उसकी डोर बना कर, उस मन रूपी डोर को प्रभु कह रहे हैं कि जो उनके चरणों से बांध देता है, उसकी इच्छाएँ अशेष हो जाती हैं, वह समदर्शी हो जाता है और वह हर्ष और शोक से भी मुक्त होकर उनके हृदय में निवास करता है।

Thursday, 13 July 2017

बचपन लुका-छिपी खेलते-खेलते
एक बार ऐसे छिपा कि फिर ढूढ़े नहीं मिला

जवानी मुंह फेरकर टाटा बाय-बाय करके
 छल करके
कब चली गयी ? पता ही नहीं चला ।
कमबख्त ने एक बार भी पलट कर नहीं  देखा ।

अब यह सबसे सयाना बुढ़ापा
बिन बुलाए अनचाहे मेहमान सा
पलथी मार कर जम कर बैठ गया है
कहता है कि बचपन और जवानी को याद करके
चाहे जितना रोओ-गाओ,चीखो-चिल्लाओ
मैं तुमको लिए बगैर टलने वाला नहीं हूँ ।

अब मुझे लगता है
कि मैंने क्यों नहीं सुनी तेरी बात ?
तूने कितनी बार शास्त्रों के,महापुरुषों के द्वारा
मुझे यह समझाने का प्रयास नहीं किया
कि यह बचपन-जवानी-बुढ़ापा और यह शरीर भी
मतलब के साथी हैं
तेरे माध्यम से सांसारिक भोगों का ऐश्वर्य भोग लेने के बाद
मुंह फेर कर ऐसे चले जाएंगे कि तुम्हे जानते ही नहीं ।

मैं जानता हूँ
 कि तुम जन्म के पहले,संसार में आने के बाद
और संसार से जाने के बाद
एक तुम्ही हो जो हर पल मेरे साथ थे,हो, और रहोगे ।

मैं यह भी जानता हूँ कि अंशी अपने अंश को
अपनी बांहो में भरने के लिए
उसे पूर्णता प्रदान करके उसके अधूरेपन के दंश से
हमेशा के लिए समाप्त करने के लिए तैयार है
बशर्ते एक बार अंशी उसे दिल से याद भर कर ले ।

अफसोस यह है कि मैं यह भी नहीं कर पा रहा हूँ
मेरे प्रभु,मेरे मालिक,मेरे बाप ।

मैंने यह भी सुना है कि तू अकारण करुणावरुणालय है
शायद तुझे कभी अपना यह विरद याद आ जाए

इसी आशा में शायद शेष सांसे पूरी कर रहा हूँ
मैं ।






Sunday, 9 April 2017

किसी की सेवा करने के पहले दस हजार बार उसे थन्यवाद दो कि उसने तुम्हें इस लायक समझा और अगनित  धन्यवाद दीजिए उस प्रभु को जिसने तुम्हें इस लायक बनाया ।
एक बार रहीमदास जी को बादशाह ने नाराज होकर दरबार से निकाल दिया पर उनका वेतन नहीं रोका । रहीमदास जी आकर चित्रकूट में बस गए और तभी उन्होंने यह दोहा लिखा था ।-
"चित्रकूट में रम रहे रहिमन,अवध नरेश
जा पर विपदा परत है सो आवत ऐहि देश ।"
अर्थात् अवध नरेश यानि श्री राम विपत्ति पड़ने पर चित्रकूट में आकर बसे थे,इसी प्रकार रहीम भी विपत्ति पड़ने पर कामतानाथ यानि चित्रकूट की शरण में आए हैं ।
चित्रकूट प्रवास के दौरान रहीमदास जी नित्य प्रति विपुल मात्रा में दान किया करते थे । दान करते समय उनके नेत्र हमेशा नीचे रहतै थे ।
तुलसीदास जी उनसे मिलने  चित्रकूट आए और उनकी इस विनम्रता पर एक दोहा लिखा जो इस प्रकार है ।
"कहु रहीम सीखी कहां अद्भुत ऐसी दैन
ज्यों-ज्यों कर ऊपर उठै त्यों-त्यों नीचे नैन"
अर्थात् हे रहीमदास जी आपने ऐसा अद्भुत दान देना कहां  से सीखा है कि जैसे-जैसे  देने के लिए आपके हाथ ऊपर उठते हैं त्यों-त्यों आपके नैन नीचे होते जाते हैं ।
रहीमदास जी ने इसके जवाब में यह कहा था ।
"देनवार कोई और है देत रहत दिन रैन
 लोग भरम मो पै करैं याते नीचे नैन ।"
अर्थात् देने वाला तो कोई दूसरा है जो दिन रात देता रहता  है । लोग भ्रमवश मुझे दाता मान लेते हैं, इसी शर्म के कारण मेरे नैन नीचे रहते हैं  ।

Friday, 3 March 2017

तुम्हारे प्रश्नों का जवाब तो जिन्दगी दे देगी पर जब जिन्दगी तुमसे पूंछेगी कि मैं तो खुदा की इनायत बनकर तेरे पास आई थी कि तू खुदा की इस इनायत का लाभ उठाकर,अपने को इतना ऊपर उठा ले कि खुदा को खुद तेरी मर्जी पूंछनी पड़े ।
"खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर के पहले खुदा बंदे से खुद पूँछे बता तेरी रजा क्या है ?"
पर तूने क्या किया खुदगर्ज ? अपनी अतृप्त वासनाओं को पूरी करने के लिए खुदा की इस बेहतरीन इनायत को खामख़ा जायज कर दिया । जिन्दगी के इस सवाल का है कोई जवाब तेरे पास ?

Thursday, 2 March 2017

निःसंदेह मन को पहचानना बहुत बड़ी बात है और यह भी सही है कि हर का मन अलग ढंग से चलता है ।
कुछ इसी तरह की बात अर्जुन ने कृष्ण से कही थी और कृष्ण ने जो समाधान दिया था वह इस प्रकार है ।
अर्जुन,"चंचलम् हि मनः कृष्णः प्रमाथि बलवत् दृढ़म् । तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव स दुष्करम्"
अर्थात् हे कृष्ण मन बहुत ही बलवान,दृढ़,संशययुक्त और चंचल है । इस मन पर नियंत्रण करना उसी प्रकार कठिन है जिस प्रकार चल रही वायु में नौका पर नियंत्रण करना ।
कृष्ण,"असंसयम् महाबाहो मनो दुर्निगहम् चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च ग्रह्यते ।"
अर्थात् हे अर्जुन निश्चित रूप से  मन बहुत ही बलवान एवं दृढ़ है तथा चंचल है पर इसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है ।
अब अभ्यास और वैराग्य क्या है ? यह विषय विस्तार का है । अतः इस पर फिर कभी । इस समय केवल इतना ही कि वैराग्य का अर्थ संन्यास नहीं है अपितु संसार में कमलवत् जीवन जीने से है ।

Monday, 30 January 2017

वामदेव ऋषि की तपस्थली
तुलसी,पद्माकर,केदार,पुष्कल,पहाड़िया,की जन्मस्थली और कर्मस्थली वाला बांदा
केन की अनगढ़ कछारों वाला बांदा
बात ही बात में लाठी और गोली चलाने वाला बांदा
मूंछो की रेख आते ही
धरती पर न चलने वाला बांदा
आजादी की लड़ाई में
अपना सर्वस्य न्योछावर करने वाले
'बांदा के नवाब' वाला बांदा
हाँ हाँ वही बांदा
जहाँ पैदा होने का मुझ गर्व है
और जिसका ऋण मेरे ऊपर
अन्तिम सांस तक रहेगा 

Thursday, 19 January 2017

"परिहित सरिस धर्म नहि भाई,परपीड़ा सम नहि अधमाई ।"---रामचरित मानस ।
तुलसी ने धर्म का सार एक ही पंक्ति में कह दिया है कि दूसरे का हित करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है और दूसरे को पीड़ा पहुँचाने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है ।
बाल्मीकि रामायण में भरत जी माता कौशल्या से कहते हैं कि यदि राम के वनवास में उनकी कोई भूमिका हो तो उन्हें भी  वह भयंकर पाप लगे जो किसी श्रमिक को उसके श्रम के एवज में यथोचित मजदूरी न देने में लगता है ।