"मोह दशमौलि तद्भ्रात अंहकार
पाकारजिति काम विश्राम हारी"
विनय-पत्रिका में दशमौलि (रावण) को मोह का प्रतीक माना गया है।
मोह का परिवार बहुत व्यापक होता है। शरीर/परिवार/मित्र/वस्तुएं/जन्म स्थान/गुरु/आश्रम आदि तमाम जगह जीव का मोह होता है।
रावण का परिवार भी बहुत व्यापक है,
"एक लख पूत सवालख नाती
ता रावण के घर दिया न बाती"
मानस में मानस रोगों के वर्णन में सारी व्याधियों की जड़ कहा गया है,
"मोह सकल व्याधिन कर मूला
तिन ते पुनि उपजहिं बहु सूला"
जीव को मोह पर नियंत्रण कर पाना बहुत ही कठिन है पर यदि मोह ही जीव को लात मारकर अपने घर से भगा दे तो जीव का कल्याण हो जाता है कयोंकि तभी प्रभु उसकी शरणागति को स्वीकार करते हैं।
रावण जानता है कि उसका भाई विभीषण उसके दुश्मन राम का भक्त है। वह मोह के कारण उसे मना नहीं कर पाता।
"रामायुध अंकित गृह शोभा वरनि न जाय
नव तुलसिका बृंद तंह देखि हरिष कपिराई
लंका निशचर निकर निवासा
इहां कहां सज्जन कर बासा"----मानस
विभीषण को तब तक रावण बर्दास्त करता है जब तक वह सीता को राम को देने की बात नहीं करता। जैसे ही विभीषण सीता को राम को देने और शरणागति की बात करता है,तभी रावण यानि मोह ने लात मारकर विभीषण यानि जीव का त्याग कर दिया है। जीव का मोह नष्ट होते ही उसे प्रभु की शरणागति प्राप्त हो जाती है।
"मम पुर बस तपसिन्ह पर प्रीती
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहुं नीतीश
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा
अनुज गहे पद बारहि सारा"---मानस
इसी प्रकार शुक जो रावण के गुप्तचर के रूप में राम जी के शिविर में गया था और वहां पकड़ लिए जाने पर लक्षमण जी उसको पिटाई से बचाकर रावण के लिए एक पत्थर देकर उसे वापिस लौटा भेज देते हैं। शुक वापिस आकर रावण को समझाता है और वह भी सीता जी को वापिस करने की बात करता है,तभी रावण(मोह) उसको भी लात मारकर भगा देता है और वह भी प्रभु राम की शरणागति में पहुंच जाता है।
"जनक सुता रघुनाथहि दीजे
एतना कहा मोर प्रभु कीजे
जब तेहि कहा देन वैदेही
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही
नाग चरन सिरु चला सो तहां
कृपा सिंधु रघुनायक जहां
करि प्रनाम निज कथा सुनाई
राम कृपा आपनि गति पाई"----मानस
"केशव केशन असि करी जो अरिहू न कराय
चंद्रबदनि मृगलोचिनी बाबा कहि कहि जांय" - - - केशव दास।
अर्थात केशव दास जी कहते हैं कि मेरे केशों ने मेरे साथ ऐसा किया है कि कोई दुश्मन भी ऐसा नहीं करता। इन्हीं सफेद बालों के कारण ही चंद्रमा के समान मुख वाली और हिरनी के समान नेत्रों वाली युवतियां मुझे बाबा कह कह कर बुलाती हैं।
मानव का शरीर तो बृद्धावस्था में जीर्ण-शीर्ण हो जाता है पर उसका मन हमेशा जवान बना रहता है। उसकी अतृप्त कामनाएँ और वासनाएं उसे अंतिम सांस तक परेशान करती हैं। इस संबंध में कबीर का निम्न दोहा भी दर्शनीय और पठनीय है।
"माया मरी न मन मरा मर मर गया शरीर
आशा तृष्णा न मरी कह गये दास कबीर"
इससे बचने का केवल एक ही उपाय बताया गया है और वह यह कि यदि आप अपनी सारी सांसारिक ममता जिसमें आपकी सांसारिक कामनाएँ और वासनाएं भी शामिल हैं को अपने प्रभु के साथ जोड़ दें तो काम बन सकता है। जैसे आप जीभ के वश में हैं तो आप अच्छे-अच्छे व्यंजन बना कर प्रभु को भोग लगाएं और उनके प्रसाद के रूप में गृहण करें। आपको सौंदर्य अच्छा लगता है आप अपने प्रभु को अपनी इच्छानुसार सजाएँ यदि भौतिक सामर्थ्य न हो तो भाव से श्रृंगार करें और सौंदर्य का आनंद लें। यदि हम ऐसा कर सकें तो यही मानवीय कमजोरियां हमारे लिए अभिशाप की जगह वरदान बन जायेंगी।
"सबकै ममता ताग बटोरी मम पद मनहि बांधि बर डोरी"---तुलसी।
सारी ममताओं को इकठ्ठा करके और फिर उसे बट करके उसकी डोर बना कर, उस मन रूपी डोर को प्रभु कह रहे हैं कि जो उनके चरणों से बांध देता है, उसकी इच्छाएँ अशेष हो जाती हैं, वह समदर्शी हो जाता है और वह हर्ष और शोक से भी मुक्त होकर उनके हृदय में निवास करता है।